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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःसीधेसाधे चित्र


बिआहा

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अब मैंने मुड़कर उस बच्ची की ओर देखा। वह बेंच पर न बैठकर नोचे एक कोने में सिमटकर बैठी थी। उसके सामने वही थाली, कटोरी और गिलास थे। देखने में वह पाँच-छह वर्ष से अधिक की न जान पड़ती थी। कपड़ों के नाम पर एक मटमैला-सा कपड़ा उसके शरीर पर लिपटा हुआ था। सिर के बाल लड़कों की तरह कटे हुए थे। चेहरे पर विषाद की गहरी छाप थी। उसे देखकर ऐसा लगता था कि इस छोटी-सी आयु में उसने बहुत दुख देख लिए हैं। मेरी बच्ची और इस बच्ची में कितना अंतर है? यह गढ़ी हुई मूर्ति की तरह शांत और स्थिर बैठी थी। डाकगाड़ी उसी पूर्ण वेग के साथ दौड़ रही थी। पर वह बालिका एक तपस्वी की तरह शांत और मौन बैठी थी। मैंने उसके पास जाकर उसका नाम पूछा, ''उसने मेरी तरफ़ देखे बिना ही जवाब दिया, “रामप्यारी।''
“तुम कहाँ जा रही हो?
“इलाहाबाद।”
“इलाहाबाद में किसके पास जाओगी।” मैंने पूछा।
और इस बार उसने सिर उठाकर उत्तर दिया, “अपने बिआहा के पास जाइत है।”
कितने आश्वासन और विश्वास के साथ उसने कहा बिआहा के पास! तो इसकी शादी भी हो चुकी है? मैंने पूछा, ''तो तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं?”
“मरि गए।'' उसी विकार रहित स्वर में उसने कहा।
“मरे हुए कितने दिन हुए हैं और तुम्हारा कोई नहीं है?''
“ढेर दिन अस्पताल में रहने के बाद वहीं मरि गए! हमारा बिआहा इलाहाबाद मां है।”
“और यह थाली, कटोरी-गिलास कहाँ से लेकर आई हो?”
“अपने घर से लेकर आई हूँ, बिआहा के घर लेकर जा रही हूँ।''
मैंने सोचा यह बच्ची जिसके माँ-बाप के मरने पर इसके बिआहा ने कोई खोज-खबर न ली, उसी बिआहा को खोजने यह कितने विश्वास के साथ निकली है।
मैंने फिर पूछा, ''इलाहाबाद में तुम्हारा बिआहा कहाँ रहता है?''
उसने फिर वही सादा-सा उत्तर दिया, “वहीं इलाहाबाद में।''
अब मैं और क्या पूछती? वह तो इलाहाबाद को भी अपने गाँव सरीखा मानती है। जहाँ गिने-चुने कुछ घर होंगे। आराम से अपने बिआहा को खोज लेगी।
मैंने पूछा, “इससे पहले कभी बिआहा के घर गई हो?”
उसने आश्चर्य मिश्रित कातरता के साथ देखते हुए कहा, '“चलाव हुए बिना बिआहा के घर कोई नहीं जाता।”
अब इससे अधिक उससे प्रश्न करना उस पर अत्याचार होता। अतः मैं चुप रह गई।

गाड़ी उसी तेज़ी के साथ चली जा रही थी। ठंडी हवा तीर की तरह भीतर आकर शरीर को कंपाने लगी। मैंने अपनी शाल निकालकर ओढ़ लिया। मैं केवल दो दिन के लिए जा रही थी। इसलिए कपड़े भी इने-गिने थे। अंत में बहुत सोच-विचार के मैंने तय किया कि बिछाने की चादर के बिना मेरा काम चल सकता है और उसे निकालकर मैंने उस बच्ची को उढ़ा दिया। वह बोली कुछ नहीं, बस विस्मय के साथ मेरी ओर देखती भर रही।

शाम बढ़ चुकी थी। कुछ भूख भी लग आई थी। मैंने खाना निकाला कुछ उसे दिया और स्वयं भी खाया।
उस लड़की ने मेरे मातृत्व को क्रियाशील होने का अवसर दिया।

खाना खाने के बाद मेरी कुछ देर लेट जाने की आदत है। अतः मैं लेट गई और सो गई। इतने में गाड़ी फिर रुकी। यह मानिकपुर था। चित्रकूट दर्शन करके लौटने वाली स्त्रियों का एक झुंड एक साथ डिब्बे में भर गया। मैंने पैर सिकोड़कर दो स्त्रियों को बैठने की जगह दी, किंतु मैं उठी नहीं, लेटी रही। फिर उनका ध्यान उस लड़की की ओर गया और पूछताछ शुरू हो गई।

एक महिला ने मुझसे पूछा, ''क्यों बहन जी! यह बच्ची आपके साथ जा रही है?'' और मैं नहीं कहकर सो गई।

अब सीधे उसी से प्रश्न होने लगे। क्या पूछा गया। मैं सब तो सुन नहीं सकी। रामप्यारी की किसी बात को सुनकर वह जोर से हँस पड़ीं। थोड़ी देर बाद बहुत शोरगुल सुनकर मैं उठ बैठी। देखा तो सामने ही पटिए पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'इलाहाबाद जंक्शन' । सजग होकर मैंने उस कोने को देखा जहाँ रामप्यारी बैठी थी, पर वह वहाँ नहीं थी । मेरी चादर समेटकर मेरे पैताने रखकर रामप्यारी अपने बिआहे को ढूँढ़ने चली गई । सामने प्लेटफार्म पर, जहाँ चित्रकूट के दर्शन का पुण्य लाभ करके लौटने वाली स्त्रियों का समूह खड़ा था, जिनसे बिना टिकिट के यात्रा करने के कारण टिकिट जाँचने वाली महिला डबल किराए के लिए उलझ रही थी, मैंने देखा रामप्यारी कटोरी, गिलास और थाली को आरती की मुद्रा में पकड़े खड़ी है । उन स्त्रियों के साथ वह भी रोक ली गई थी। उन स्त्रियों के यह कहने पर कि वह लड़की उनके साथ नहीं है टिकिट जाँचने वाली महिला ने रामप्यारी से पूछा, छोकरी, तू कहाँ जाएगी? कहाँ से आई है? और रामप्यारी का उत्तर था 'घर ते आइत लाग है, अपने बिआहा के घर जाब', और वह आगे बढ़ गई।

मैं देखती रह गई। जंक्शन का कोलाहल उसी प्रकार हो रहा था, पर मेरे कानों में रामप्यारी का स्वर गूँज रहा था, 'बिआहा के घर जाब'।

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